सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

साहित्य/रंजन जैदी

साहित्य अपने स्वभाव से ही व्यवस्था का विरोधी होता है और आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास उपनिवेशवाद और पूंजीवाद से लड़ते हुए हुआ है. 
साहित्य जरूरत और लालसा के अंतर की बारीकियां समझाकर पाठक को विवेकवान बनाता है. एकल ध्रुवीय विश्व व्यस्था और संचार क्रान्ति ने बाजारवाद को बहुत बढ़ावा दिया है] जिससे मनुष्यता के लिए नए संकट उपस्थित हो गए हैं. उपन्यास एक बड़ी रचनाशीलता है जो प्रतिसंसार की रचना करने में समर्थ है. हिदी के लिए यह विधा अपेक्षाकृत नयी होने पर भी बाजारवाद के प्रसंग में इसने कुछ बेहद शक्तिशाली रचनाएं दी हैं. बाजारवाद ने जीवन में भय की ऐसी नयी उद्भावना की है जिसके कारण कोई भी निश्चिन्त नहीं है. समकालीन रचनाशीलता ने प्रतिगामी विचारों से सदैव संघर्ष किया है जिसका उदाहरण कहानियों व कविताओं में बहुधा मिलता है.

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